नई पुस्तकें >> बच्चन रचनावली भाग-1-11 बच्चन रचनावली भाग-1-11हरिवंशराय बच्चन
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हिंदी कविता का एक दौर यह भी था जब हिंदी भाषी समाज को जीवन के गंभीर पक्ष में पर्याय आस्था थी, और कविता भी अपने पाठक-श्रोता कि समझ पर भरोसा करते हुए, संवाद को अपना ध्येय मानकर आगे बढ़ रही थी। मनोरंजक कविता और गंभीर कविता का कोई विभाजन नहीं था; न मनोरंजन के नाम पर शब्दकारों-कलाकारों आदि के बीच जनसाधारण कि कुरुचि और अशिक्षा का दोहन करने कि वह होड़ थी जिसके आज न जाने कितने रूप हमारे सामने हैं, और न कविता में इस सबसे बचने कि कोशिश में जन-संवाद से बचने कि प्रवृति। हरिवंश राय बच्चन उसी काव्य-युग के सितारा कवी रहे हैं। उन्होंने न सिर्फ मंच से अपने पाठकों-श्रोताओं से संवाद किया बल्कि लोकप्रियता के कीर्तिमान गधे। कविता कि शर्तों अरु कवी-रूप में अपने युग-धर्म का निर्वाह भी किया और जन से भी जुड़े रहे। यह रचनावली उनके अवदान कि यथासंभव समग्र प्रस्तुति है। रचनावली के इस नए संस्करण में 1983 में प्रकाशित नौ खण्ड बढ़कर अब ग्यारह हो गए हैं। रचनावली के प्रकाश के बाद एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में आया बच्चन जी कि आत्म्काथ का चौथा भाग खण्ड दस में और पत्रों समेत कुछ अन्य सामग्री खण्ड ग्यारह में ली गई है। रचनावली के इस पहले खण्ड में इन रचनाओं को लिया गया है : ‘मधुशाला’ (1935), ‘मधुबाला (1936)’, ‘मधुकलश’ (1937), ‘निशा निमंत्रण’ (1938), ‘एकांत संगीत’ (1939), ‘आकुल अंतर’ (1943), ‘सतरंगिनी’ (1945), ‘हलाहल’ (1946), ‘बंगाल का काल’ (1946), ‘खादी के फूल’ (1948) और ‘सूत की माला’ (1948) शीर्षक पुस्तकें यहाँ संकलित हैं। बच्चनजी कि आरंभिक रचनाओं कि सूची में ‘तेरा हार’ 1932 में छपा भी था पर बाद में उसका समावेश बच्चनजी कि ‘प्रारंभिक रचनाएँ-भाग 1’ (रचनावली, खण्ड-3) में हो गया, जबकि ‘विकल विश्व’ की विज्ञप्ति मात्र प्रकाशित हुई थी; उसकी कुछ कविताएँ ‘आकुल अंतर’ (रचनावली, खण्ड-1) में और शेष ‘धार के इधर-उधर’ (रचनावली, खण्ड-2) ने सम्मिलित कर ली गई थीं। ‘विकल विश्व’ के नाम से कभी कोई संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ।
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